जबलपुर। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय प्रशासन द्वारा राज्य की अधीनस्थ अदालतों में लंबित 25 पुराने प्रकरण तीन माह की समय सीमा में निराकृत करने के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
ओबीसी एडवाकेट्स वेलफेयर एसोसिएशन के प्रतिनिधि रिटायर्ड जस्टिस राजेंद्र कुमार श्रीवास ने बताया कि इससे पहले मार्च में इसी मामले को लेकर मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में भी जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर व विनायक प्रसाद शाह ने बताया कि अर्जेंट सुनवाई का आवेदन देने और कई बार निवेदन करने के बावजूद मामला सुनवाई के लिए लिस्ट नहीं हुआ, इसलिए अब सीधे शीर्ष कोर्ट में याचिका दायर की गई है। सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका में उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को पक्षकार बनाया गया है।
समय सीमा में निराकृत करने की बाध्यता
याचिका में कहा गया है कि मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के निर्देश पर प्रदेश की सभी जिला सत्र अदालतों को आदेश जारी किया है। जिसके अंतर्गत 25 पुराने लंबित मामले तीन माह की समय सीमा में निराकृत करने की बाध्यता लागू कर दी गई है।
नहीं किया जा सकता समय सीमा का निर्धारण
सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्रीवास की याचिका में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ के न्यायदृष्टांत का हवाला दिया हैै, जिसके अनुसार राइट टू स्पीडी ट्रायल पक्षकारों का विधिक अधिकार है, लेकिन किसी भी न्यायलय द्वारा प्रकरणों के निराकरण के लिये समय सीमा का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
नागरिकों के अनुच्छेद 21 में संरक्षित मौलिक अधिकार का उल्लंघन
इसके अलावा सक्षम न्यायलय को किसी भी न्यायलय द्वारा निर्धारित समय सीमा में प्रकरण को निराकृत करने का आदेश भी नहीं दिया जा सकता है। यदि इस प्रकार के निर्देश जारी किये जाते हैं, तो नागरिकों के अनुच्छेद 21 में संरक्षित मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।
विधायिका को कानून बनाने का अधिकार
याचिका में कहा गया कि संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत न्यायलय को कानून बनाने का अधिकार नहीं है। प्रकरणों के समय सीमा मे निराकरण से संबंधित कानून बनाने का अधिकार सिर्फ विधायिका को है।